पौराणिक >> अभिशप्त कथा अभिशप्त कथामनु शर्मा
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प्रस्तुत है एक कालजयी उपन्यास.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कच उठ बैठा। उसने आचार्य के चरण छुए। ‘‘जीवेम शरदः
शतम्।’’ आचार्य ने कहा। कच ने एक विजयी दृष्टि जयंती
पर डाली। वह भी सफलता पर मुस्कारा रही थी। ‘‘आपने
ज्ञान दिया, मैं कृतज्ञ हूँ, आचार्य’’ कच ने
विजयोन्नमाद में कहा। ‘‘क्या’’
आचार्य का मुख खुला का खुला रह गया। उन्हें ऐसा लगा जैसे विस्फोट हो गया
है। धधकते ज्वाला मुखी में वह गिरते चले जा रहे हैं। वे उठ कर के
पागलों से चिल्लाते हुए निकले, ‘‘मेरे साथ धोखा हुआ
मैं
लूट लिया गया । मेरे वैभव में उन छलियों ने आग लगा दी । मैं भस्म हो रहा
हूँ। मुझे बचाओं मुझे बचाओं’’। कृष्ण की आत्मकथा जैसे
कालजयी उपन्यास के लेखक श्री मनु शर्मा द्वारा लिखित कच-देवयानी की चर्चित
पौराणिक कथा पर आधारित पठनीय उपन्यास। यह औपन्यासिक कृति पौराणिक इतिहास
की जानकारी देने के साथ ही तत्कालीन आर्यवर्त के सामाजिक, राजनीतिक व
सांस्कृतिक इतिहास का भी लेखा-जोखा है।
कथा-सूत्र
250 वैदिक सूक्तों में इंद्र की प्रख्याति
है। इंद्र को अर्पित सूक्तों की संख्या लगभग 300 तक पहुँच जाती है। अन्य वैदिक देवताओं की अपेक्षा इसका व्यक्तित्व कल्पनाओं से अधिक घिरा है।
महाभारत,आदिपर्व
इंद्र ने अपनी पुत्री जयंती को शुक्र की सेवा में भेजा था। शुक्र उसकी
सेवा से बहुत प्रसन्न हुए और उसके पति के रूप में दस वर्षों तक रहे।
ब्रह्मांड एवं वायुपुराण
असुरराज वृषपर्वा ने अपनी पुत्री शर्मिष्ठा को अपने गुरु शुक्राचार्य और
उनकी दुहिता को प्रसन्न करने के लिए शुक्र के ही आश्राम में छोड़ रखा था।
मत्स्यपुराण
इंद्र ने अपनी पुत्री शुक्राचार्य को अर्पित की और वृषपर्वा ने भी।
क्या
यह इसलिए नहीं हुआ कि उनके पास संजीवनी विद्या थी ? सत्ता और सिंहासन के
लिए अपनी पुत्री तक को समर्पित करने की जघन्य प्रवृत्ति क्या आज तक अपनी
प्रासंगिकता नहीं बनाए हुए है ?
देवगुरु बृहस्पति और असुरगुरु शुक्र दोनों नीतिज्ञ थे, दोनों देववर्णी थे; किंतु एक शुक्र ने सोम की मादकता में अपनी नैतिकता डुबो दी थी। सुरा और सुंदरी से खेलती हुई उसकी वासना आसुरी हो गई थी। असुर और सुर दो संस्कृतियाँ थीं। यदि इन्हें मानवीय प्रवृत्तियाँ भी मान ली जाएँ तो मुझे आपत्ति नहीं।
देव मूलतः अमर नहीं थे, यदि होते तो उन्हें संजीवनी विद्या की आवश्यकता क्यों पड़ती ? देवों में बस एक ही अमर था और वह था देवाधिदेव महादेव, जिसे ‘मृत्युंजय’ की संज्ञा मिली।
काम भी देवपुत्र है। वह अपवित्र नहीं। सृजन तत्व के मूल में वह है। जब से अनंग हुआ, वह और भी प्रभावशाली हो गया। हमारी प्रत्येक वृत्ति को प्रभावित करने लगा—‘मनुष्य अपने अवचेतन और यौन का दास है।’
देवगुरु बृहस्पति और असुरगुरु शुक्र दोनों नीतिज्ञ थे, दोनों देववर्णी थे; किंतु एक शुक्र ने सोम की मादकता में अपनी नैतिकता डुबो दी थी। सुरा और सुंदरी से खेलती हुई उसकी वासना आसुरी हो गई थी। असुर और सुर दो संस्कृतियाँ थीं। यदि इन्हें मानवीय प्रवृत्तियाँ भी मान ली जाएँ तो मुझे आपत्ति नहीं।
देव मूलतः अमर नहीं थे, यदि होते तो उन्हें संजीवनी विद्या की आवश्यकता क्यों पड़ती ? देवों में बस एक ही अमर था और वह था देवाधिदेव महादेव, जिसे ‘मृत्युंजय’ की संज्ञा मिली।
काम भी देवपुत्र है। वह अपवित्र नहीं। सृजन तत्व के मूल में वह है। जब से अनंग हुआ, वह और भी प्रभावशाली हो गया। हमारी प्रत्येक वृत्ति को प्रभावित करने लगा—‘मनुष्य अपने अवचेतन और यौन का दास है।’
फ्रायड
यही काम जब आसुरी प्रवृत्ति से जुड़ता है तब
वह निकृष्ट हो जाता है।
स्मरण रहे, व्यक्ति नहीं, उसकी प्रवृत्ति जुड़ती है। जब इंद्र अहल्या के
उटज में गया था, तब भी वह देवराज था, फिर भी अपनी कुत्सित प्रवृत्ति के
कारण वह असुरों से भी नीचे गिर चुका था। उस समय इंद्र आज के समाज का आदि
बलात्कारी लगता है।
अपने इन्हीं निष्कर्षों के आधार पर कच-देवयानी की बहुचर्चित कथा को पुनः बुनने की चेष्टा की गई है। कथा पुरानी है, पर उसमें बहुत कुछ शायद आपको आधुनिक लगे।
अपने इन्हीं निष्कर्षों के आधार पर कच-देवयानी की बहुचर्चित कथा को पुनः बुनने की चेष्टा की गई है। कथा पुरानी है, पर उसमें बहुत कुछ शायद आपको आधुनिक लगे।
एक
रात्रि का यौवन ढल चुका था। नक्षत्रों की
ज्योति श्लथ पड़ गई थी।
शयनकक्ष के द्वार के प्रहरी को लगा जैसे कोई आ रहा है; किंतु कक्ष में जागरण का कंपन लेश मात्र भी भासित नहीं हुआ था। वह चकित-सा मौन खड़ा रहा। आशंकाएँ उसके मस्तिष्क में मँडराने लगीं। वह अपनी असि सँभालते हुए पीछे हटा और आक्रमण का सामना करने की मुद्र में खड़ा हो गया। उसका अंतर्मंथन चलता रहा, ‘इस समय राजप्रासाद में किसी असुर के प्रवेश की संभावना तो नहीं है, किंतु परिस्थिति विषम है। कुछ भी हो सकता है।’ वह आवश्यकता से अधिक व्यग्र, परंतु सजग था।
किंतु उसकी सजगता उस समय शिथिल हो नितांत संकुचित हो गई, जब उसने महाराज को सामने से आते देखा। ‘अरे, यह क्या !’ उसके आश्चर्य की सीमा न रही। असीम भय से थरथराता अँधेरा कुतूहल से स्तब्ध था। उसने असि नीचे की और मस्तक झुकाकर किनारे हो गया।
महाराज ने उसकी ओर देखा भी नहीं। वे शिथिल गति से उद्यान की ओर चले गए। उनकी पगध्वनि सुनसान में घायल सर्प-सी रेंगती रह गई।
तिमिर से ढकी उनकी आकृति के भाव यद्यपि दृष्टि की पकड़ के बाहर थे, फिर भी उनकी गति से व्याकुलता स्पष्ट भासित हो रही थी।
‘अभी रात्रि का डेढ़ प्रहर शेष है, फिर भी महाराज उद्यान की ओर !’ प्रहरी का विस्मय पराकाष्ठा पर था, ‘साथ में न कोई परिचारक और न परिचारिका।.....वस्तुतः बात क्या है ? उसकी समझ में कुछ नहीं आया। वह देखता रहा, विस्मय और आतंक से देखता रहा। महाराज उद्यान के मध्य पुष्करिणी के समीप तक पहुँच चुके थे।
प्रहरी की दृष्टि अब निकट की स्फटिक शिला की ओर मुड़ी, जहाँ उसका दूसरा साथी ढुलका पड़ा था और खर्राटे भर रहा था—अपने कर्तव्य से च्युत। कदाचित् मैरेय अधिक ले ली है।
वह उसके पास आया और झकझोरकर उसे जगाने लगा, ‘‘अरे, उठ !’’
नींद उसे छोड़ नहीं पा रही थी। वह तंद्रिल अवस्था में ही बड़बड़ाया, ‘‘व्यर्थ परेशान मत कर। अभी सोने दे।’’
‘‘उधर देख ओऽ.......’’उसने पुनः उसे झकझोरा और पुष्करिणी की ओर संकेत किया।
‘‘यह ओऽ-ओऽ क्या करता है रे ?’’ वह आँखें मलते हुए बड़बड़ाया, ‘‘किसी उर्वशी को बुलाया है क्या ?’’
‘‘तुझे उर्वशी ही सूझती है। और मैं यहाँ मरा जा रहा हूँ।’’ एक जोर का धक्का उसने उसे और दिया। अब वह मैरेय के चषक से निकलकर धरती पर आया। प्रकृतिस्थ हुआ। उसकी दृष्टि पुष्करिणी की ओर गई। उसने जो कुछ देखा, उससे अवाक् रह गया।
वह कुछ समय तक यों ही देखता रहा, मानो कोई आश्चर्यजनक स्वप्न अप्रत्याशित घटना बन बैठा हो। वह बोला, ‘‘जरूर कोई बात है, अन्यथा महाराज इस कुसमय में उद्यान की ओर न आते।’’ इतना कहकर उसने फिर चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। निश्चित रूप से वह उन अप्सराओं को ढूँढ़ रहा था, जो छाया की भाँति देवेंद्र के साथ लगी रहती हैं।
धीरे-धीरे दो-एक प्रहरी और वहाँ एकत्र हो गए। आतंक और अनिश्चय के विचित्र घुटन का अनुभव करते हुए वे चुप थे, फिर भी कभी-कभी कुतूहल के शब्द अभागों के सपनों की भाँति उनके अधरों से बिखर पड़ते थे।
क्षण के बाद क्षण बीतते गए।
देवेंद्र की चिंता और व्यग्रता से तमिस्त्र काँपने लगा। ब्राह्म मुहूर्त के पूर्व ही राजप्रासाद जाग उठा।
कुछ अप्सराएँ दौड़ी हुई उद्यान की ओर आईं और महाराज के निकट जाकर अभिवादन के स्वर में बोलीं, ‘‘देवराज की जय हो !’’
पर इंद्र शून्यमनस्क से अपलक उन्हें निहारते रहे। उनकी गंभीर मुद्रा ने अप्सराओं को भी जड़वत् कर दिया। कोई कुछ बोल न सकी। उनकी जिज्ञासा पर कुतूहल का हिम जमता चला गया।
ऐसे ही गुमसुम से कुछ क्षण और निकल गए।
फिर कुछ सहमी हुई और अपने बिखरे साहस का हर कण बटोरती हुई उनमें से एक बोली, ‘‘कुछ जानने की धृष्टता कर सकती हूँ, महाराज ?’’
महाराज के अधर हिले नहीं, पर भंगिमा ने पूछा, ‘क्या ?’
‘‘यही कि आज रात्रि में ही आप उद्यान में क्यों चले आए ?’’
‘‘अभी तो शुक्र का उदय भी नहीं हुआ है, राजन् ! लगभग डेढ़ प्रहर रात्रि शेष है।’’ यह आवाज दूसरी अप्सरा की थी।
महाराज अपना दक्षिण चरण पुष्करिणी के जल में हिलाते हुए बोले, ‘‘मैं ऐसी मनः स्थिति में हूँ, जिसमें रात और दिन में कोई अंतर नहीं होता, देवांगना।’’ सबकी दृष्टि महाराज की आकृति पर टँग गई। वे बोलते गए, ‘‘...मुझे नींद नहीं आई। मध्य रात्रि तक जागता रहा। विचार मस्तिष्क से टकराते रहे। नींद सामने खड़ी मुद्राएँ बदलती रही। आँख लगते ही एक दुःखद स्वप्न ने आ घेरा।’’ महाराज क्षण भर के लिए चुप हो गए, जैसे मन पर पड़े स्वप्न को उधेड़ रहे हों। फिर उन्होंने धीरे-धीरे बताया, ‘‘मैंने देखा, ऐरावत मुझे अपनी सूँड़ में लपेट रहा है। मेरा सिर मुझसे अलग हो कहीं और गिरा है, मैं कबंध मात्र रह गया हूँ। फिर भी रुधिर नहीं बह रहा है। चारों ओर मुझे घेरकर खड़े असुर अट्टहास कर रहे हैं।....फिर क्षण भर में सबकुछ लुप्त हो जाता है। मैं एकाकी तिमिरनद में डूबने लगता हूँ।....नभ में नक्षत्र निपात हो रहा है। चंद्र चूर-चूर होकर बिखर गया है। आकाश टुकड़े-टुकड़े हो गया है।.....ओह, कितना भयानक !’’ इतना कहते-कहते वह एकदम मौन हो गए। आगे की ओर पग बढ़ाया तो ऐसा लगा जैसे वह स्वयं बिखर जाएँगे। एक अप्सरा ने आकर उन्हें सहारा दिया। एक कृत्रिम हँसी उन्होंने अधरों पर चिपका ली और बोल पड़े, ‘‘इंद्र में अभी पौरुष का अभाव नहीं है, वह किसी के सहारे की अपेक्षा नहीं करता।’’
अप्सरा देवेंद्र कि भुजा छोड़कर चुपचाप पीछे चली आई। वे पुनः स्वप्न की चर्चा करने लगे, ‘‘.....मैं देख रहा हूँ कि मेरे अश्व उच्चैःश्रवा पर शची सवार है और वह हँस रही है।....कितनी चुभती हुई भयानक हँसी है उसकी !’’ वे कुछ रुककर सोचने लगे, ‘‘दुष्ट मातालि भी मुझ पर पत्थर फेंक रहा है।....नीच...कृतघ्न.....पापी।’’इंद्र आवेश में थे।
‘‘हे भगवान, क्या होने वाला है !’’ एक अप्सरा भयातुर हो बोल पड़ी।
‘‘बड़ा अमंगलसूचक स्वप्न है।’’ दूसरी ने कहा।
‘‘अमंगल ! अमंगल !! अमंगल !!! अरे, अमंगल तो हमारे सिर पर मँडरा रहा है।’’ वे जैसे खीझ उठे, ‘‘हम निरंतर असुरों से पराजित होते जा रहे हैं। लगता है, अब देवताओं का विनाश सन्निकट है।’’ इंद्र का अंतर्मंथन अचानक छलककर बाहर आया।
‘‘यह क्या कह रहे हैं, महाराज ?’’ अप्सराओं में से कई एक साथ बोल उठीं।
‘‘मैं ठीक कह रहा हूँ, देवांगना ! अब देव सृष्टि अधिक दिनों तक टिक नहीं सकती। असुर हमसे प्रबल पड़ते जा रहे हैं।’’ इतना कहते हुए पुष्करिणी के तट पर बने मणिजड़ित आसन से वे उठ खड़े हुए। उनके उत्तरीय का वाम पक्ष और नीचे लटककर पुष्करिणी के जल का स्पर्श करता हुआ प्रमुदित कुमुदिनियों से उलझने लगा।
अप्सराएँ महाराज के पीछे खड़ी हो गईं। इंद्र का मस्तिष्क चकरा रहा था। व्यग्रता में वे पुनः टहलने लगे। इस बार उनकी गति पहले से तीव्र थी।
पारिजात के झुरमुट में बैठा कोई पक्षी मधुर स्वर में गा उठा, मानो वह महाराज की व्यग्रता को चिढ़ा रहा हो।
‘‘किंतु महाराज, असुर हम लोगों से किसी बात में श्रेष्ठ नहीं हैं—न बल में, न बुद्धि में और न विद्या में।’’
देवराज कुछ समय तक शांत थे। अंतरिक्ष की ओर देखते हुए सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘नहीं देवि, ऐसा तो नहीं है। असुर सदा बल में हमसे बढ़-चढ़कर ही रहे हैं। अब विद्या में भी हमसे आगे हैं।’’
‘‘जब अशुभ घड़ी आती है, तब सारी बातें प्रतिकूल हो जाती हैं। आजकल अनिष्ट नक्षत्र हम पर मँडरा रहे हैं। हमारे सारे प्रयत्न निष्फल होते जा रहे हैं।’’ चिंतन की गहरी रेखाएँ उभर आई थीं उनकी आकृति पर।
‘‘......तब हमें किसी और दधीच को खोजना पड़ेगा।’’ अप्सराओं में से एक बोली।
‘‘.....यहाँ वृत्रासुर के वध की समस्या नहीं है; वरन् देवताओं की रक्षा का प्रश्न है, देवत्व की अस्मिता का प्रश्न है।’’
‘‘अस्मिता हमारी सदैव बनी रहेगी।’’ देवांगनाओं ने अपनी ध्वनि पर विश्वास आरोपित किया।
किंतु इंद्र उस विश्वास से बहुत दूर था। उसने निराशा में अपनी पिछली बात दुहराई, ‘‘नक्षत्रों की गति हमारे अनुकूल नहीं है।’’
‘‘स्त्री की मनःस्थिति और पुरुष का भाग्य बदलते देर नहीं लगती, महाराज !’’
अनुभव से अधिक इठलाहट थी अप्सरा की वाणी में। उसने देवेंद्र का मन हलका करने के लिए ऐसा कहा था, किंतु परिणाम उल्टा हुआ। वे सुनते ही झुँझला उठे।
व्यग्रता अपनी सीमा पर कुछ भी सुनना नहीं चाहती। वह मन और मस्तिष्क दोनों को अपने में उलझा लेती है। इंद्र की ऐसी ही मानसिकता झुँझलाहट उगलने लगी, ‘‘तुम लोग समझ नहीं सकतीं, बिलकुल समझ नहीं सकतीं कि हमारी समस्या क्या है, हमारी परिस्थिति कितनी विषम है।’’ इतना कहते हुए उनके सूखते गले में कोई वस्तु जैसे अटक-सी गई। उन्होंने खाँसकर गला साफ किया। फिर बोले, ‘‘जानती हो, असुरों के पास शुक्राचार्य हैं।’’
‘‘हमारे पास भी तो आचार्य बृहस्पति हैं।’’
‘‘किंतु आचार्य बृहस्पति के पास वह वस्तु नहीं है, जो शुक्राचार्य के पास है।’’
‘‘वह क्या ?’’ अप्सराओं का कुतूहल जागा।
‘‘संजीवनी विद्या।’’ इंद्र ने स्वयं अपने कथन की व्यवस्था की, ‘‘मरे हुए असुरों को शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर देते हैं।’’ एक गंभीर निःश्वास छोड़ते हुए वे कहते गए, ‘‘मृत होकर भी असुर अमर हो रहे हैं और हम अमृत-पुत्र होकर भी निस्सहाय।’’ हताशा की गहन छाया उस अंधकार में भी उनकी आकृति पर उभरती ज्ञात हुई। ब्राह्म मुहूर्त निकट था। शांत सो रहे आकाश में तारे सुगबुगा रहे थे। पारिजात की भीनी-भीनी गंध नंदन कानन में लगभग पसर गई थी। चटकती कलियों से अठखेलियाँ करता मंद समीरण बड़ी मादक गति से बह रहा था। फिर भी इंद्र की व्याकुलता बढ़ती चली जा रही थी। अप्सराएँ सोच नहीं पा रही थीं कि वे क्या करें ? एकटक मौन होकर देखना मात्र उनके वश में रह गया था। व्यग्रता इंद को टहला रही थी। कभी तीव्र, कभी मंद। कभी जड़वत् खड़े हो जाते, अंधकार में खोए क्षितिज की ओर देखने लगते। कभी-कभी उनका दाहिना हाथ मस्तक पर भी चला जाता था, मानो वे प्रस्वेद पोंछने की चेष्टा कर रहे हों।
अचानक वे आवेग में ही बोले, ‘‘जयंत को बुलाओ।’’
एक अप्सरा प्रासाद की ओर लपकी।
दक्षिणी आकाश में कोई नक्षत्र अपनी ज्योति बिखेरकर पारिजात के पुष्प की भाँति चू पड़ा
यज्ञशाला से शंख और प्रणव की ध्वनि फूटने लगी थी। उषःकाल का मंत्रोच्चारण आरंभ हो गया था। अग्निहोत्र अभी शुरू नहीं हुआ था, होने को था। तैयारियाँ चल रही थीं।
एक अप्सरा अंतःपुर की ओर लपकी चली जा रही थी। अचानक उसे एक परिचारिका दिखाई दी।
‘‘माधुरी !’’ उसने पुकारा
माधुरी उलटती प्रत्यंचा की भाँति झटके से बल खाती खड़ी हो गई।
‘‘महाराज कुमार जयंत को स्मरण कर रहे हैं।’’ अप्सरा ने कहा।
‘‘किंतु इस समय तो कुमार सो रहे हैं।’’
‘‘क्यों ? अभी तक जागे नहीं ?’’
‘‘कह तो रही हूँ कि अभी सो रहे हैं।’’ माधुरी कुछ ऐंठकर बोली और बल खाती आगे निकल गई।
‘‘बड़ी दुर्विनीत है। ठीक से उत्तर तक नहीं देती।’’ अप्सरा अमर्ष में उबल पड़ी।
माधुरी कर्णचुंबी नेत्रों से मुसकराई और उस पर उपेक्षित वक्र दृष्टि डालती विचित्र ढंग से आगे बढ़ गई।
अप्सरा अंतःपुर में पहुँची। कुमार के शयनकक्ष का द्वार खुला था। दूर से ही मालविका पंखा झलती दिखाई दे रही थी।
उसने धीरे से करतल-ध्वनि की, जिससे वह मालविका को अपनी ओर आकृष्ट कर सके। हुआ भी ऐसा ही। वह अधरों पर उँगली धरे चुप रहने का संकेत करती हुई कक्ष से बाहर निकल आई।
‘‘क्यों, कुमार सो रहे हैं क्या ?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘स्वास्थ्य तो ठीक है न ?’’
‘‘हाँ, ठीक ही है। किंतु बहुत देर रात गए वह सो सके हैं।...और वह भी जब माधुरी ने कादंबरी के कई चषक पिला दिए तब !’’
‘‘क्यों ? प्रमदा-प्रमोद में उलझे रहे ?’’ अप्सरा मुसकराई।
‘‘नहीं। वे कुछ चिंतित दिखाई दे रहे थे।....बार-बार युद्ध की बातें करते रहे।’’ मालविका ने कहा। अप्सरा कुछ सोचने लगी। कुछ मूक क्षण सरकते चले गए। प्रकोष्ठ से आते दीपशिखा के मद्धिम प्रकाश में मालविका ने देखा कि अप्सरा की मुखमुद्रा बदल रही है।
‘‘अच्छा, तो आजकल कुमार की सेवा में माधुरी है ?’’ अप्सरा ने पूछा।
‘‘जी हाँ।’’ मालविका हँस पड़ी। शीघ्र ही उसकी हँसी रहस्यमय मुसकराहट में सिमटने लगी।
‘‘तभी आजकल उसके पग धरती पर नहीं पड़ते।.....लगता है, उसने अभी से ही छान ली है।’’
‘‘क्यों, छानने की क्या आवश्यकता है ! यौवन के ज्वार में कादंबरी से कम मादकता होती है !’’ मालविका पुनः मुसकराई।
‘‘किंतु देवि, उमड़ते यौवन और ज्वार के समुद्र ने कब अपनी मर्यादा का ध्यान रखा !’’ मालविका का उन्मुक्त हास अप्सरा के अधरों का स्पर्श करता हुआ निकल गया। उसकी आकृति का तनाव कुछ शिथिल पड़ा। मालविका ने बात आगे बढ़ाई—
‘‘इस समय कुमार को जगाना ठीक नहीं लगता; किंतु ज्यों ही उनकी नींद टूटेगी, मैं आपका संदेश कहूँगी।’’ सोचित अभिवादन के बाद मालविका कक्ष में जाकर सोते हुए कुमार को पंखा झलने लगी।
अप्सरा उद्यान की पुष्करिणी की ओर लौट पड़ी थी। उसने शची को यज्ञशाला की ओर जाते देखा। उनके पीछे अन्य परिचारिकाएँ भी थीं। पट्टमहिषी के आगे एक ब्रह्मचारी पूजन का स्वर्ण थाल लिये चल रहा था। उसके भी आगे मधुर मंद स्वर में रजत घंटिका बजाता एक और परिचर था। घंटिका ध्वनि महारानी के आगमन के प्रति सावधान कर रही थी। लोग मस्तक झुकाते हुए अगल-बगल हटते जा रहे थे।
महारानी की आकृति पर जागरण का नव उल्लास था। उनके गौर वर्ण से लिपटा पीतांबर कौमुदी की दुग्ध धवलता से निर्मित किसी पुत्तलिका को स्वर्ण पत्रों में समेटे था।
अप्सरा ने देखा, महारानी यज्ञशाला की सीढ़ियाँ चढ़ रही हैं।
‘क्या मैं उन्हें महाराज की मनःस्थिति का परिचय कराऊँ ?....पर यह तो मुझसे कहा नहीं गया है। मैं महाराज के आदेश की सीमा से परे क्यों होऊँ ? चलकर सीधे-सीधे उन्हीं से कह दूँ कि राजकुमार अभी सो रहे हैं।’ लगभग इसी निष्कर्ष के साथ अप्सरा आगे बढ़ी।
दो ही चार डग जाने के बाद उसके चरण जैसे रुक-से गए। वह मानसिक दुविधा की स्थिति में दिखाई दी। एक क्षण के लिए रुकी और फिर सोचती हुई यज्ञशाला की ओर लौट पड़ी।
‘‘महारानी की जय हो ! इस सेविका का अभिवादन स्वीकार हो।’’ अप्सरा विनत भाव से झुकते हुए बोली।
पार्श्व से इस अप्रत्याशित ध्वनि के कारण महारानी एकदम मुड़ीं और प्रश्नवाचक मुद्रा में हो गईं। अप्सरा ने कम शब्दों और अधिक संकेतों से महाराज की मनःस्थिति से उन्हें अवगत कराया। वह व्यग्र हो उठीं। गंगा की धारा-सा निनादित यज्ञशाला का पवित्र वातावरण एकदम गंभीर हो गया।
‘‘तो राजकुमार अभी सो रहे हैं ?’’ महारानी ने कुछ सोचते हुए कहा।
‘‘जी हाँ, रात्रि में बहुत देर बाद नींद आई है। लगता है, वे युद्ध के संबंध में ही चिंतित थे।’’
‘‘अच्छा।’’ उनकी गंभीरता बढ़ती गई। वह अपना हाथ मलती रहीं। अधर हिले नहीं, पर लगा, वह कुछ बोल रही हैं।
एक क्षण में निर्णय लिया। उन्होंने यज्ञकुंड को प्रणाम किया और उद्यान की ओर चल पड़ीं। अप्सरा उनके पीछे छाया की तरह हो चली। कोई और परिचारिका साथ नहीं थी।
उषा की प्रथम अरुणिमा ने आकाश का स्पर्श कर लिया था।
शची ने दूर से ही देखा, महाराज अकेले अशोक के नीचे स्फटिक शिला पर बैठे हैं। उनके चरणों के निकट ही सोमपान का स्वर्ण चषक ढुलका पड़ा है। अपनी गति की चरम सीमा पर चलित चक्र की भाँति वे नितांत स्थिर दिखाई दे रहे थे। परिचारिकाएँ उनके पीछे कुछ दूरी पर मूर्तिवत् खड़ी थीं।
महाराज की दृष्टि पहले शची पर नहीं पड़ी, पर उन्हें किसी का आभास हुआ। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, अप्सरा मौन खड़ी थी।
‘‘क्यों, जयंत आया ?’’
अप्सरा ने बिना कुछ कहे शची की ओर संकेत किया।
‘‘.....तो क्या यही जयंत है ?’’ महाराज की वाणी में व्यग्रता-मिश्रित व्यंग्य था। उनके अधरों के बीच एक सचेष्ट मुसकराहट की चमक उभरी थी।
शयनकक्ष के द्वार के प्रहरी को लगा जैसे कोई आ रहा है; किंतु कक्ष में जागरण का कंपन लेश मात्र भी भासित नहीं हुआ था। वह चकित-सा मौन खड़ा रहा। आशंकाएँ उसके मस्तिष्क में मँडराने लगीं। वह अपनी असि सँभालते हुए पीछे हटा और आक्रमण का सामना करने की मुद्र में खड़ा हो गया। उसका अंतर्मंथन चलता रहा, ‘इस समय राजप्रासाद में किसी असुर के प्रवेश की संभावना तो नहीं है, किंतु परिस्थिति विषम है। कुछ भी हो सकता है।’ वह आवश्यकता से अधिक व्यग्र, परंतु सजग था।
किंतु उसकी सजगता उस समय शिथिल हो नितांत संकुचित हो गई, जब उसने महाराज को सामने से आते देखा। ‘अरे, यह क्या !’ उसके आश्चर्य की सीमा न रही। असीम भय से थरथराता अँधेरा कुतूहल से स्तब्ध था। उसने असि नीचे की और मस्तक झुकाकर किनारे हो गया।
महाराज ने उसकी ओर देखा भी नहीं। वे शिथिल गति से उद्यान की ओर चले गए। उनकी पगध्वनि सुनसान में घायल सर्प-सी रेंगती रह गई।
तिमिर से ढकी उनकी आकृति के भाव यद्यपि दृष्टि की पकड़ के बाहर थे, फिर भी उनकी गति से व्याकुलता स्पष्ट भासित हो रही थी।
‘अभी रात्रि का डेढ़ प्रहर शेष है, फिर भी महाराज उद्यान की ओर !’ प्रहरी का विस्मय पराकाष्ठा पर था, ‘साथ में न कोई परिचारक और न परिचारिका।.....वस्तुतः बात क्या है ? उसकी समझ में कुछ नहीं आया। वह देखता रहा, विस्मय और आतंक से देखता रहा। महाराज उद्यान के मध्य पुष्करिणी के समीप तक पहुँच चुके थे।
प्रहरी की दृष्टि अब निकट की स्फटिक शिला की ओर मुड़ी, जहाँ उसका दूसरा साथी ढुलका पड़ा था और खर्राटे भर रहा था—अपने कर्तव्य से च्युत। कदाचित् मैरेय अधिक ले ली है।
वह उसके पास आया और झकझोरकर उसे जगाने लगा, ‘‘अरे, उठ !’’
नींद उसे छोड़ नहीं पा रही थी। वह तंद्रिल अवस्था में ही बड़बड़ाया, ‘‘व्यर्थ परेशान मत कर। अभी सोने दे।’’
‘‘उधर देख ओऽ.......’’उसने पुनः उसे झकझोरा और पुष्करिणी की ओर संकेत किया।
‘‘यह ओऽ-ओऽ क्या करता है रे ?’’ वह आँखें मलते हुए बड़बड़ाया, ‘‘किसी उर्वशी को बुलाया है क्या ?’’
‘‘तुझे उर्वशी ही सूझती है। और मैं यहाँ मरा जा रहा हूँ।’’ एक जोर का धक्का उसने उसे और दिया। अब वह मैरेय के चषक से निकलकर धरती पर आया। प्रकृतिस्थ हुआ। उसकी दृष्टि पुष्करिणी की ओर गई। उसने जो कुछ देखा, उससे अवाक् रह गया।
वह कुछ समय तक यों ही देखता रहा, मानो कोई आश्चर्यजनक स्वप्न अप्रत्याशित घटना बन बैठा हो। वह बोला, ‘‘जरूर कोई बात है, अन्यथा महाराज इस कुसमय में उद्यान की ओर न आते।’’ इतना कहकर उसने फिर चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। निश्चित रूप से वह उन अप्सराओं को ढूँढ़ रहा था, जो छाया की भाँति देवेंद्र के साथ लगी रहती हैं।
धीरे-धीरे दो-एक प्रहरी और वहाँ एकत्र हो गए। आतंक और अनिश्चय के विचित्र घुटन का अनुभव करते हुए वे चुप थे, फिर भी कभी-कभी कुतूहल के शब्द अभागों के सपनों की भाँति उनके अधरों से बिखर पड़ते थे।
क्षण के बाद क्षण बीतते गए।
देवेंद्र की चिंता और व्यग्रता से तमिस्त्र काँपने लगा। ब्राह्म मुहूर्त के पूर्व ही राजप्रासाद जाग उठा।
कुछ अप्सराएँ दौड़ी हुई उद्यान की ओर आईं और महाराज के निकट जाकर अभिवादन के स्वर में बोलीं, ‘‘देवराज की जय हो !’’
पर इंद्र शून्यमनस्क से अपलक उन्हें निहारते रहे। उनकी गंभीर मुद्रा ने अप्सराओं को भी जड़वत् कर दिया। कोई कुछ बोल न सकी। उनकी जिज्ञासा पर कुतूहल का हिम जमता चला गया।
ऐसे ही गुमसुम से कुछ क्षण और निकल गए।
फिर कुछ सहमी हुई और अपने बिखरे साहस का हर कण बटोरती हुई उनमें से एक बोली, ‘‘कुछ जानने की धृष्टता कर सकती हूँ, महाराज ?’’
महाराज के अधर हिले नहीं, पर भंगिमा ने पूछा, ‘क्या ?’
‘‘यही कि आज रात्रि में ही आप उद्यान में क्यों चले आए ?’’
‘‘अभी तो शुक्र का उदय भी नहीं हुआ है, राजन् ! लगभग डेढ़ प्रहर रात्रि शेष है।’’ यह आवाज दूसरी अप्सरा की थी।
महाराज अपना दक्षिण चरण पुष्करिणी के जल में हिलाते हुए बोले, ‘‘मैं ऐसी मनः स्थिति में हूँ, जिसमें रात और दिन में कोई अंतर नहीं होता, देवांगना।’’ सबकी दृष्टि महाराज की आकृति पर टँग गई। वे बोलते गए, ‘‘...मुझे नींद नहीं आई। मध्य रात्रि तक जागता रहा। विचार मस्तिष्क से टकराते रहे। नींद सामने खड़ी मुद्राएँ बदलती रही। आँख लगते ही एक दुःखद स्वप्न ने आ घेरा।’’ महाराज क्षण भर के लिए चुप हो गए, जैसे मन पर पड़े स्वप्न को उधेड़ रहे हों। फिर उन्होंने धीरे-धीरे बताया, ‘‘मैंने देखा, ऐरावत मुझे अपनी सूँड़ में लपेट रहा है। मेरा सिर मुझसे अलग हो कहीं और गिरा है, मैं कबंध मात्र रह गया हूँ। फिर भी रुधिर नहीं बह रहा है। चारों ओर मुझे घेरकर खड़े असुर अट्टहास कर रहे हैं।....फिर क्षण भर में सबकुछ लुप्त हो जाता है। मैं एकाकी तिमिरनद में डूबने लगता हूँ।....नभ में नक्षत्र निपात हो रहा है। चंद्र चूर-चूर होकर बिखर गया है। आकाश टुकड़े-टुकड़े हो गया है।.....ओह, कितना भयानक !’’ इतना कहते-कहते वह एकदम मौन हो गए। आगे की ओर पग बढ़ाया तो ऐसा लगा जैसे वह स्वयं बिखर जाएँगे। एक अप्सरा ने आकर उन्हें सहारा दिया। एक कृत्रिम हँसी उन्होंने अधरों पर चिपका ली और बोल पड़े, ‘‘इंद्र में अभी पौरुष का अभाव नहीं है, वह किसी के सहारे की अपेक्षा नहीं करता।’’
अप्सरा देवेंद्र कि भुजा छोड़कर चुपचाप पीछे चली आई। वे पुनः स्वप्न की चर्चा करने लगे, ‘‘.....मैं देख रहा हूँ कि मेरे अश्व उच्चैःश्रवा पर शची सवार है और वह हँस रही है।....कितनी चुभती हुई भयानक हँसी है उसकी !’’ वे कुछ रुककर सोचने लगे, ‘‘दुष्ट मातालि भी मुझ पर पत्थर फेंक रहा है।....नीच...कृतघ्न.....पापी।’’इंद्र आवेश में थे।
‘‘हे भगवान, क्या होने वाला है !’’ एक अप्सरा भयातुर हो बोल पड़ी।
‘‘बड़ा अमंगलसूचक स्वप्न है।’’ दूसरी ने कहा।
‘‘अमंगल ! अमंगल !! अमंगल !!! अरे, अमंगल तो हमारे सिर पर मँडरा रहा है।’’ वे जैसे खीझ उठे, ‘‘हम निरंतर असुरों से पराजित होते जा रहे हैं। लगता है, अब देवताओं का विनाश सन्निकट है।’’ इंद्र का अंतर्मंथन अचानक छलककर बाहर आया।
‘‘यह क्या कह रहे हैं, महाराज ?’’ अप्सराओं में से कई एक साथ बोल उठीं।
‘‘मैं ठीक कह रहा हूँ, देवांगना ! अब देव सृष्टि अधिक दिनों तक टिक नहीं सकती। असुर हमसे प्रबल पड़ते जा रहे हैं।’’ इतना कहते हुए पुष्करिणी के तट पर बने मणिजड़ित आसन से वे उठ खड़े हुए। उनके उत्तरीय का वाम पक्ष और नीचे लटककर पुष्करिणी के जल का स्पर्श करता हुआ प्रमुदित कुमुदिनियों से उलझने लगा।
अप्सराएँ महाराज के पीछे खड़ी हो गईं। इंद्र का मस्तिष्क चकरा रहा था। व्यग्रता में वे पुनः टहलने लगे। इस बार उनकी गति पहले से तीव्र थी।
पारिजात के झुरमुट में बैठा कोई पक्षी मधुर स्वर में गा उठा, मानो वह महाराज की व्यग्रता को चिढ़ा रहा हो।
‘‘किंतु महाराज, असुर हम लोगों से किसी बात में श्रेष्ठ नहीं हैं—न बल में, न बुद्धि में और न विद्या में।’’
देवराज कुछ समय तक शांत थे। अंतरिक्ष की ओर देखते हुए सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘नहीं देवि, ऐसा तो नहीं है। असुर सदा बल में हमसे बढ़-चढ़कर ही रहे हैं। अब विद्या में भी हमसे आगे हैं।’’
‘‘जब अशुभ घड़ी आती है, तब सारी बातें प्रतिकूल हो जाती हैं। आजकल अनिष्ट नक्षत्र हम पर मँडरा रहे हैं। हमारे सारे प्रयत्न निष्फल होते जा रहे हैं।’’ चिंतन की गहरी रेखाएँ उभर आई थीं उनकी आकृति पर।
‘‘......तब हमें किसी और दधीच को खोजना पड़ेगा।’’ अप्सराओं में से एक बोली।
‘‘.....यहाँ वृत्रासुर के वध की समस्या नहीं है; वरन् देवताओं की रक्षा का प्रश्न है, देवत्व की अस्मिता का प्रश्न है।’’
‘‘अस्मिता हमारी सदैव बनी रहेगी।’’ देवांगनाओं ने अपनी ध्वनि पर विश्वास आरोपित किया।
किंतु इंद्र उस विश्वास से बहुत दूर था। उसने निराशा में अपनी पिछली बात दुहराई, ‘‘नक्षत्रों की गति हमारे अनुकूल नहीं है।’’
‘‘स्त्री की मनःस्थिति और पुरुष का भाग्य बदलते देर नहीं लगती, महाराज !’’
अनुभव से अधिक इठलाहट थी अप्सरा की वाणी में। उसने देवेंद्र का मन हलका करने के लिए ऐसा कहा था, किंतु परिणाम उल्टा हुआ। वे सुनते ही झुँझला उठे।
व्यग्रता अपनी सीमा पर कुछ भी सुनना नहीं चाहती। वह मन और मस्तिष्क दोनों को अपने में उलझा लेती है। इंद्र की ऐसी ही मानसिकता झुँझलाहट उगलने लगी, ‘‘तुम लोग समझ नहीं सकतीं, बिलकुल समझ नहीं सकतीं कि हमारी समस्या क्या है, हमारी परिस्थिति कितनी विषम है।’’ इतना कहते हुए उनके सूखते गले में कोई वस्तु जैसे अटक-सी गई। उन्होंने खाँसकर गला साफ किया। फिर बोले, ‘‘जानती हो, असुरों के पास शुक्राचार्य हैं।’’
‘‘हमारे पास भी तो आचार्य बृहस्पति हैं।’’
‘‘किंतु आचार्य बृहस्पति के पास वह वस्तु नहीं है, जो शुक्राचार्य के पास है।’’
‘‘वह क्या ?’’ अप्सराओं का कुतूहल जागा।
‘‘संजीवनी विद्या।’’ इंद्र ने स्वयं अपने कथन की व्यवस्था की, ‘‘मरे हुए असुरों को शुक्राचार्य अपनी संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर देते हैं।’’ एक गंभीर निःश्वास छोड़ते हुए वे कहते गए, ‘‘मृत होकर भी असुर अमर हो रहे हैं और हम अमृत-पुत्र होकर भी निस्सहाय।’’ हताशा की गहन छाया उस अंधकार में भी उनकी आकृति पर उभरती ज्ञात हुई। ब्राह्म मुहूर्त निकट था। शांत सो रहे आकाश में तारे सुगबुगा रहे थे। पारिजात की भीनी-भीनी गंध नंदन कानन में लगभग पसर गई थी। चटकती कलियों से अठखेलियाँ करता मंद समीरण बड़ी मादक गति से बह रहा था। फिर भी इंद्र की व्याकुलता बढ़ती चली जा रही थी। अप्सराएँ सोच नहीं पा रही थीं कि वे क्या करें ? एकटक मौन होकर देखना मात्र उनके वश में रह गया था। व्यग्रता इंद को टहला रही थी। कभी तीव्र, कभी मंद। कभी जड़वत् खड़े हो जाते, अंधकार में खोए क्षितिज की ओर देखने लगते। कभी-कभी उनका दाहिना हाथ मस्तक पर भी चला जाता था, मानो वे प्रस्वेद पोंछने की चेष्टा कर रहे हों।
अचानक वे आवेग में ही बोले, ‘‘जयंत को बुलाओ।’’
एक अप्सरा प्रासाद की ओर लपकी।
दक्षिणी आकाश में कोई नक्षत्र अपनी ज्योति बिखेरकर पारिजात के पुष्प की भाँति चू पड़ा
यज्ञशाला से शंख और प्रणव की ध्वनि फूटने लगी थी। उषःकाल का मंत्रोच्चारण आरंभ हो गया था। अग्निहोत्र अभी शुरू नहीं हुआ था, होने को था। तैयारियाँ चल रही थीं।
एक अप्सरा अंतःपुर की ओर लपकी चली जा रही थी। अचानक उसे एक परिचारिका दिखाई दी।
‘‘माधुरी !’’ उसने पुकारा
माधुरी उलटती प्रत्यंचा की भाँति झटके से बल खाती खड़ी हो गई।
‘‘महाराज कुमार जयंत को स्मरण कर रहे हैं।’’ अप्सरा ने कहा।
‘‘किंतु इस समय तो कुमार सो रहे हैं।’’
‘‘क्यों ? अभी तक जागे नहीं ?’’
‘‘कह तो रही हूँ कि अभी सो रहे हैं।’’ माधुरी कुछ ऐंठकर बोली और बल खाती आगे निकल गई।
‘‘बड़ी दुर्विनीत है। ठीक से उत्तर तक नहीं देती।’’ अप्सरा अमर्ष में उबल पड़ी।
माधुरी कर्णचुंबी नेत्रों से मुसकराई और उस पर उपेक्षित वक्र दृष्टि डालती विचित्र ढंग से आगे बढ़ गई।
अप्सरा अंतःपुर में पहुँची। कुमार के शयनकक्ष का द्वार खुला था। दूर से ही मालविका पंखा झलती दिखाई दे रही थी।
उसने धीरे से करतल-ध्वनि की, जिससे वह मालविका को अपनी ओर आकृष्ट कर सके। हुआ भी ऐसा ही। वह अधरों पर उँगली धरे चुप रहने का संकेत करती हुई कक्ष से बाहर निकल आई।
‘‘क्यों, कुमार सो रहे हैं क्या ?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘स्वास्थ्य तो ठीक है न ?’’
‘‘हाँ, ठीक ही है। किंतु बहुत देर रात गए वह सो सके हैं।...और वह भी जब माधुरी ने कादंबरी के कई चषक पिला दिए तब !’’
‘‘क्यों ? प्रमदा-प्रमोद में उलझे रहे ?’’ अप्सरा मुसकराई।
‘‘नहीं। वे कुछ चिंतित दिखाई दे रहे थे।....बार-बार युद्ध की बातें करते रहे।’’ मालविका ने कहा। अप्सरा कुछ सोचने लगी। कुछ मूक क्षण सरकते चले गए। प्रकोष्ठ से आते दीपशिखा के मद्धिम प्रकाश में मालविका ने देखा कि अप्सरा की मुखमुद्रा बदल रही है।
‘‘अच्छा, तो आजकल कुमार की सेवा में माधुरी है ?’’ अप्सरा ने पूछा।
‘‘जी हाँ।’’ मालविका हँस पड़ी। शीघ्र ही उसकी हँसी रहस्यमय मुसकराहट में सिमटने लगी।
‘‘तभी आजकल उसके पग धरती पर नहीं पड़ते।.....लगता है, उसने अभी से ही छान ली है।’’
‘‘क्यों, छानने की क्या आवश्यकता है ! यौवन के ज्वार में कादंबरी से कम मादकता होती है !’’ मालविका पुनः मुसकराई।
‘‘किंतु देवि, उमड़ते यौवन और ज्वार के समुद्र ने कब अपनी मर्यादा का ध्यान रखा !’’ मालविका का उन्मुक्त हास अप्सरा के अधरों का स्पर्श करता हुआ निकल गया। उसकी आकृति का तनाव कुछ शिथिल पड़ा। मालविका ने बात आगे बढ़ाई—
‘‘इस समय कुमार को जगाना ठीक नहीं लगता; किंतु ज्यों ही उनकी नींद टूटेगी, मैं आपका संदेश कहूँगी।’’ सोचित अभिवादन के बाद मालविका कक्ष में जाकर सोते हुए कुमार को पंखा झलने लगी।
अप्सरा उद्यान की पुष्करिणी की ओर लौट पड़ी थी। उसने शची को यज्ञशाला की ओर जाते देखा। उनके पीछे अन्य परिचारिकाएँ भी थीं। पट्टमहिषी के आगे एक ब्रह्मचारी पूजन का स्वर्ण थाल लिये चल रहा था। उसके भी आगे मधुर मंद स्वर में रजत घंटिका बजाता एक और परिचर था। घंटिका ध्वनि महारानी के आगमन के प्रति सावधान कर रही थी। लोग मस्तक झुकाते हुए अगल-बगल हटते जा रहे थे।
महारानी की आकृति पर जागरण का नव उल्लास था। उनके गौर वर्ण से लिपटा पीतांबर कौमुदी की दुग्ध धवलता से निर्मित किसी पुत्तलिका को स्वर्ण पत्रों में समेटे था।
अप्सरा ने देखा, महारानी यज्ञशाला की सीढ़ियाँ चढ़ रही हैं।
‘क्या मैं उन्हें महाराज की मनःस्थिति का परिचय कराऊँ ?....पर यह तो मुझसे कहा नहीं गया है। मैं महाराज के आदेश की सीमा से परे क्यों होऊँ ? चलकर सीधे-सीधे उन्हीं से कह दूँ कि राजकुमार अभी सो रहे हैं।’ लगभग इसी निष्कर्ष के साथ अप्सरा आगे बढ़ी।
दो ही चार डग जाने के बाद उसके चरण जैसे रुक-से गए। वह मानसिक दुविधा की स्थिति में दिखाई दी। एक क्षण के लिए रुकी और फिर सोचती हुई यज्ञशाला की ओर लौट पड़ी।
‘‘महारानी की जय हो ! इस सेविका का अभिवादन स्वीकार हो।’’ अप्सरा विनत भाव से झुकते हुए बोली।
पार्श्व से इस अप्रत्याशित ध्वनि के कारण महारानी एकदम मुड़ीं और प्रश्नवाचक मुद्रा में हो गईं। अप्सरा ने कम शब्दों और अधिक संकेतों से महाराज की मनःस्थिति से उन्हें अवगत कराया। वह व्यग्र हो उठीं। गंगा की धारा-सा निनादित यज्ञशाला का पवित्र वातावरण एकदम गंभीर हो गया।
‘‘तो राजकुमार अभी सो रहे हैं ?’’ महारानी ने कुछ सोचते हुए कहा।
‘‘जी हाँ, रात्रि में बहुत देर बाद नींद आई है। लगता है, वे युद्ध के संबंध में ही चिंतित थे।’’
‘‘अच्छा।’’ उनकी गंभीरता बढ़ती गई। वह अपना हाथ मलती रहीं। अधर हिले नहीं, पर लगा, वह कुछ बोल रही हैं।
एक क्षण में निर्णय लिया। उन्होंने यज्ञकुंड को प्रणाम किया और उद्यान की ओर चल पड़ीं। अप्सरा उनके पीछे छाया की तरह हो चली। कोई और परिचारिका साथ नहीं थी।
उषा की प्रथम अरुणिमा ने आकाश का स्पर्श कर लिया था।
शची ने दूर से ही देखा, महाराज अकेले अशोक के नीचे स्फटिक शिला पर बैठे हैं। उनके चरणों के निकट ही सोमपान का स्वर्ण चषक ढुलका पड़ा है। अपनी गति की चरम सीमा पर चलित चक्र की भाँति वे नितांत स्थिर दिखाई दे रहे थे। परिचारिकाएँ उनके पीछे कुछ दूरी पर मूर्तिवत् खड़ी थीं।
महाराज की दृष्टि पहले शची पर नहीं पड़ी, पर उन्हें किसी का आभास हुआ। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, अप्सरा मौन खड़ी थी।
‘‘क्यों, जयंत आया ?’’
अप्सरा ने बिना कुछ कहे शची की ओर संकेत किया।
‘‘.....तो क्या यही जयंत है ?’’ महाराज की वाणी में व्यग्रता-मिश्रित व्यंग्य था। उनके अधरों के बीच एक सचेष्ट मुसकराहट की चमक उभरी थी।
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